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कविता

रीता का रीता मन रह गया

ब्रजराज तिवारी ‘अधीर’


रीता का रीता मन रह गया
नए वर्ष के दिन भी!

सुबह की हवाओं ने आपस में बाँट ली बधाइयाँ
मेरे संग रह गईं केवल तनहाइयाँ
दिन ढलते, धूप-किरन अंग-अंग तोड़ कर चली गई
रीता का रीता तन रह गया
नए वर्ष के दिन भी।

फूलों-सी एक दृष्टि के लिए भीड़ भरे नगर-बीच खो गया,
देख-देख परिचित आकृतियाँ कतरा गईं
उन को जाने यह क्या हो गया,
आकाशी दर्पन में उगा हुआ इंद्रधनुष
पल में ही टूट कर बिखर गया
रीता का रीता क्षण रह गया
नए वर्ष के दिन भी।

 


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